भारत में पारिवारिक विघटन पर एक लेख लिखिए?

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  • Post last modified:मार्च 5, 2023

भारत में पारिवारिक विघटन :-

भारत में पारिवारिक विघटन आज हमारी महत्वपूर्ण समस्याओं में से एक है। औद्योगिक क्रांति से पहले भारतीय परिवारों का स्वरूप संयुक्त था, लेकिन औद्योगीकरण, शहरीकरण, शिक्षा और पश्चिमी जीवन दर्शन के प्रभाव से भारतीय परिवारों की संरचना और कार्य तेजी से बदलने लगे।

इन परिवर्तनों ने न केवल परिवार के ढाँचे को असंतुलित कर दिया, बल्कि सदस्यों के पारस्परिक सम्बन्धों, मेल-मिलाप की प्रक्रिया, परिवार के अनुशासन और व्यवहार-पद्धतियों को भंग करने के लिए भी सर्वाधिक उत्तरदायी सिद्ध हुए।

भारत में आज परिवार में अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो गई हैं, जिनके आधार पर भारतीय परिवारों को विघटन की प्रक्रिया की ओर अग्रसर माना जा सकता है।

भारत में पारिवारिक विघटन के दुष्परिणाम :-

भारत में पारिवारिक विघटन से जुड़ी प्रमुख समस्याएँ हैं:-

पति-पत्नी के बीच असामंजस्य –

यह वर्तमान भारतीय परिवारों की सबसे विषम समस्या है। परंपरागत रूप से संयुक्त परिवारों के अनुशासन, महिलाओं के बीच अनुभव के कारण पति-पत्नी के बीच वैमनस्य की समस्या का अनुभव नहीं होता था। हमारे धार्मिक और सामाजिक मूल्य महिलाओं को बचपन से ही अपने पति को ‘स्वामी’ मानने के लिए प्रशिक्षित करते थे।

आज महिलाओं में शिक्षा का प्रसार तेजी से हुआ है, संयुक्त परिवारों के स्थान पर एकल परिवारों की स्थापना हुई है तथा आर्थिक क्षेत्र में स्त्रियों की भागीदारी बढ़ रही है। इस ऐसी स्थिति में पति-पत्नी की अपेक्षाओं और व्यवहारों में असंतुलन के कारण अधिकांश परिवारों में कलह, संघर्ष, अविश्वास और अलगाव आम बात हो रही है।

विवाह विच्छेद की दर में निरन्तर वृद्धि –

विवाह का विघटन भारतीय परिवारों में विघटन की एक और अभिव्यक्ति है। आज आपसी त्याग, सहनशीलता, सहिष्णुता  और विवाह की पवित्रता के मूल्य कमजोर पड़ गए हैं। विवाह को एक समझौते के रूप में देखा जाने लगा है जिसका उद्देश्य आर्थिक सुरक्षा और यौन सुख है। इसी का नतीजा है कि आज शहरी इलाकों में तलाक की संख्या तेजी से बढ़ रही है। ग्रामीण क्षेत्रों में अलगाव की समस्या आज पहले से कहीं अधिक गंभीर है।

बच्चों की उचित परवरिश का अभाव –

यह हमारे परिवारों की एक स्थायी विशेषता बनती जा रही है। परंपरागत रूप से, भारतीय परिवार बच्चों के समाजीकरण का आदर्श केंद्र थे जहाँ उन्हें सामाजिक, सांस्कृतिक, नैतिक, शैक्षिक और अन्य सभी प्रकार की शिक्षा देना परिवार के सदस्यों की नैतिक जिम्मेदारी थी।

आज परिवार में व्यक्ति का जीवन आत्मकेन्द्रित, अत्यधिक व्यस्त एवं भौतिक सुखों की ओर उन्मुख है। अधिकांश माता-पिता अपनी जिम्मेदारी भूल गए हैं और शिक्षण संस्थानों को बच्चे का अंतिम अभिभावक मानने लगे हैं। नैतिक और सांस्कृतिक प्रशिक्षण के बजाय परिवार में बच्चों को सदस्यों से अवमानना और उदासीन व्यवहार मिलना शुरू हो गया है। परिणामस्वरूप परिवार में ही तनाव और कलह में वृद्धि नहीं हुई है, बल्कि बच्चों की अनुशासनहीनता ने सामाजिक जीवन में भी जहर घोलना शुरू कर दिया है।

पारिवारिक नियंत्रण का अभाव –

आधुनिक युग में व्यक्ति को यह विश्वास हो गया है कि परिवार की परंपराओं और मर्यादाओं को तोड़कर ही वह जीवन में सभी सुख-सुविधाएं प्राप्त कर सकता है। पारिवारिक हास्य, व्यंग्य या तिरस्कार का व्यक्ति के जीवन में कोई महत्व नहीं है।

दूसरी ओर वर्तमान परिवार उस व्यक्ति के लिए वह कार्य भी नहीं कर रहा है जिसके कारण परिवार का उसके जीवन पर नियंत्रण था। आज व्यक्ति अपनी सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, शैक्षिक, मनोरंजनात्मक और यहाँ तक कि जैविक आवश्यकताओं के लिए भी अन्य संस्थाओं पर निर्भर हो गया है। इसलिए परिवार एक संस्था नहीं बल्कि एक सुविधाजनक और हितोन्मुख समिति के रूप में बदल रहे हैं।

पारिवारिक स्तरीकरण का टूटना –

परंपरागत रूप से, भारतीय परिवारों में, प्रत्येक सदस्य की स्थिति दूसरे की तुलना में पूर्व निर्धारित थी। यह परिवर्तन पारिवारिक अनुशासन, सामाजिक अनुशासन और सामाजिक शिक्षा की प्रक्रिया को प्रभावी बनाए रखने में भी बहुत सहायक था।

आज अनियमित स्वतंत्रता और व्यक्तिवादी प्रवृत्तियों के कारण परिवार का प्रत्येक सदस्य अधिक से अधिक अधिकारों की माँग करने लगा है। उम्र, नातेदारी और नैतिकता की सारी नींवें धूमिल कर दी गई हैं। परिवार में वृद्ध सदस्यों का तिरस्कार करना और उन्हें सुविधाओं से वंचित करना आम बात मानी जाती है। इस स्थिति ने एक पारिवारिक संरचना का निर्माण किया है जिसमें परिवार में सभी सदस्य शासक और अधिनायक की स्थिति में हैं लेकिन किसी को भी दूसरे के कल्याण में कोई दिलचस्पी नहीं है।

गृहिणियों की स्थिति और भूमिका में संघर्ष –

आज भारत में शायद ही कोई मध्यम और उच्च वर्गीय परिवार है जिसमें स्त्रिया अपनी स्थिति से संतुष्ट हैं और पुरुष महिलाओं की भूमिका में आश्वस्त हैं। आज महिलाएं शिक्षित होकर सार्वजनिक जीवन में प्रवेश करना चाहती हैं, वे बच्चों के प्रशिक्षण और घरेलू प्रबंधन में पुरुषों को बराबर का भागीदार बनाना चाहती हैं और सामाजिक स्वतंत्रता और भौतिक सुख-सुविधाओं में उनकी रुचि लगातार बढ़ रही है। पुरुष वर्ग इन आकांक्षाओं के अनुरूप महिलाओं की स्थिति को पहचानने के लिए तैयार नहीं है। नतीजतन, भारत में परिवार के टूटने का खतरा लगातार बढ़ रहा है।

परिवार में प्रचलित रूढ़ियाँ –

इनके परिणाम हमारे समाज में पारिवारिक विघटन का ज्वलंत उदाहरण हैं। भारत में आज ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में अधिकांश परिवार अंधविश्वासों, बुराइयों, बेकार के रीति-रिवाजों और विघटनकारी प्रथाओं के बीच जी रहे हैं।

जिन परिवारों में प्रत्येक सदस्य भाग्य का दुहाई देता है, बाल विवाह, दहेज, जातिगत भेदभाव, बड़प्पन और वैधव्य जीवन की अयोग्यता को अपने लिए आदर्श मानता है, ऋण लेकर भी कर्मकाण्ड को पूरा करना अनिवार्य मानता है तो उन्हें संगठित परिवार कैसे कहा जा सकता है?

भारत में पारिवारिक विघटन के प्रमुख कारण :-

मुख्य रूप से भारत में परिवारों के विघटन के लिए अधिक जिम्मेदार साबित हुए हैं। ये कारण इस प्रकार हैं:-

औद्योगीकरण और नगरीकरण –

औद्योगीकरण के कारण आज जीविकोपार्जन का क्षेत्र बहुत विस्तृत हो गया है। उद्योगों में काम करने के लिए गाँवों से लाखों मजदूर प्रतिदिन शहरों में आते हैं जहाँ जगह की कमी के कारण परिवार के साथ स्थायी रूप से रहना संभव नहीं है।

परिणामस्वरूप, गाँव में उनके बच्चे अपने पिता के नियंत्रण से मुक्त हो जाते हैं। स्नेह के अभाव में परिवार के नियम अपने व्यवहार पर नियंत्रण नहीं रख पाते, प्राय: नगर की चकाचौंध और मानसिक तनाव मनुष्य को अपने परिवार के प्रति उदासीन बना देता है।

आर्थिक तनाव –

भारत में आज आर्थिक तनाव चरम पर है जिसका परिवारों के संगठन पर बहुत प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। आर्थिक विषमताओं के बावजूद महिलाओं के लिए जीविकोपार्जन करना अच्छा नहीं माना जाता है। ये आर्थिक तनाव आपसी अविश्वास को बढ़ावा देकर परिवार को विघटित कर रहे हैं, परिवार में कलह बढ़ा रहे हैं।

दोषपूर्ण शिक्षा-

वर्तमान शिक्षा प्रणाली युवा पीढ़ी में शारीरिक श्रम और ग्रामीण जीवन के प्रति द्वेष पैदा कर भौतिक जीवन को बढ़ावा दे रही है। भारत में जहां शादी के बाद भी लाखों युवा शहर में शिक्षा प्राप्त करने आते हैं। धीरे-धीरे वे अपने ग्रामीण परिवार के प्रति उदासीन हो जाते हैं, माता-पिता भी बच्चे में कृत्रिम व्यवहारों की शिक्षा को उच्च मूल्यों के बजाय शिक्षा के अर्थ के रूप में देखते हैं।

बाद में जब परिवार के आदर्श नियम, प्रथाएं, मर्यादाएं और अनुशासन टूटते हैं तो परिवार बिखरने लगता है। वर्तमान शिक्षा ने आकांक्षाओं, आंदोलनात्मक प्रवृत्तियों और व्यक्तिवाद को जन्म दिया है। उसमें भारतीय परिवारों में पहले से मौजूद त्याग, संयम और स्नेह के गुण लुप्त होते जा रहे हैं। इस तरह परिवारों का विघटन होता है।

सामाजिक संरचना में परिवर्तन –

हमारी पारंपरिक सामाजिक संरचना में उत्पन्न होने वाले वर्तमान परिवर्तन भी परिवार के विघटन के लिए जिम्मेदार हैं, उदाहरण के लिए, विवाह आज परिवार की जिम्मेदारी नहीं बल्कि व्यक्ति की इच्छा का विषय बन गया है। संयुक्त संपत्ति की धारणा लुप्त हो गई है। नैतिक मूल्य लगातार गिर रहे हैं।

शिक्षा में सामाजिक और सांस्कृतिक शिक्षा के लिए कोई स्थान नहीं है और सामाजिक संगठन का सबसे महत्वपूर्ण आधार आर्थिक विकास माना जाता है। सामाजिक संरचना में ये सभी परिवर्तन परिवार की पवित्रता को नष्ट कर रहे हैं और इसे विघटन की ओर ले जा रहे हैं।

पश्चिमी दृष्टिकोण –

पश्चिमी दृष्टिकोण भारतीय परिवारों को भंग करने में बहुत कारगर सिद्ध हुआ है। हमारे समाज में जीवन का पाश्चात्य दर्शन धीरे-धीरे विकसित हुआ कि एकल परिवारों के माध्यम से ही व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकता है और परिवार में युवा सदस्यों की स्थिति वृद्ध सदस्यों की तुलना में कम महत्वपूर्ण नहीं है।

यह पश्चिम के व्यक्तिवादी और सुखद दृष्टिकोण का ही परिणाम है कि आज बीमारी, बेरोजगारी, अपंगता, बुढ़ापा, या अन्य किसी संकट की स्थिति में व्यक्ति अपने परिवार में अकेला और असहाय महसूस करने लगा है।

धर्म के प्रभाव में कमी –

परंपरागत रूप से, भारतीय परिवारों में धार्मिक दायित्वों की पूर्ति सबसे ठोस आधार थी जो परिवार के सदस्यों को एक-दूसरे से जोड़ती थी। वर्तमान युग में धर्म की व्याख्या उत्तरदायित्व की भावना के आधार पर नहीं, अपितु भ्रामक तर्कों और निजी स्वार्थों के आधार पर किया जा रहा है।

परिणामस्वरूप, धर्म और अर्थ का निर्वाह पारिवारिक कार्य न होकर एक व्यक्तिगत कार्य बन गया है। संस्कारों को रूढ़िवादिता के रूप में देखा जाने लगा है और संस्कारों को पूरा करना परिवार में आवश्यक नहीं माना जाता है। फलस्वरूप परिवार के संगठन का आधार भावात्मक न होकर सुविधा के सम्बन्धों पर आधारित हो गया। यही वह स्थिति है जिसने तरह-तरह के तनावों, झगड़ों और वैमनस्य को जन्म देकर परिवार को भंग कर दिया है।

संक्षिप्त विवरण :-

उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भारत में परिवार व्यवस्था आज परिवर्तन के दौर से गुजर रही है, कुछ विद्वानों का मत है कि इस बदलती हुई स्थिति को पारिवारिक विघटन नहीं मानना चाहिए, परन्तु वास्तविकता यह है कि आज भारतीय परिवारों में एक अभूतपूर्व संकट की स्थिति है।

FAQ

पारिवारिक विघटन के दुष्परिणाम क्या है?

भारत में पारिवारिक विघटन के प्रमुख कारण क्या है?

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Hi, I Am Social Worker इस ब्लॉग का उद्देश्य छात्रों को सरल शब्दों में और आसानी से अध्ययन सामग्री उपलब्ध कराना है।

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